हमारे पास कल्पनाएं हैं, लेकिन उन्हें बयां करने की आज़ादी नहीं?
मानवीय संवेदनाओं की महीन परतों को जिस बारीकी, ईमानदारी और बेबाकी से फ्रांसीसी सिनेमा ने उकेरा है — शायद ही कोई और कर पाया हो। वहां कहानियों पर कोई पर्दा नहीं डाला जाता, जो सोचा जाता है, और जो भीतर कहीं छुपा बैठा है — वो परदे पर निडरता से उभरता है।
यह खुलापन है या सोचने की आज़ादी — ये तय करना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि फ्रांस का सिनेमा चौंकाता है, झकझोरता है और हमारी उस कल्पनाशक्ति की सीमाओं को तोड़ देता है — जिसे हम संस्कार, मर्यादा या परंपरा के नाम पर अपने भीतर ही कैद कर बैठे हैं।
2003 में आई The Dreamers की ही बात करें — तो यह एक ऐसी फ़िल्म है जो हमारे सामाजिक ढाँचों, नैतिक पहरों और विचारों की जकड़न को खुलेआम चुनौती देती है। एक तरफ पेरिस की सड़कों पर छात्र आंदोलन सरकार से टकरा रहा है, और दूसरी तरफ तीन युवा — अपने ही एक निजी संसार में, वर्जनाओं से मुक्त, एक फैंटेसी की दुनिया में जी रहे हैं। वे जीते हैं जैसे किसी बंद दरवाज़े के पीछे नहीं, बल्कि खुले आसमान में — जहाँ कोई सामाजिक नियम, नैतिकता या भय उन्हें छू भी नहीं पाता।
वो कोई विद्रोह नहीं करते, वे तो बस खुद को महसूस करते हैं — बगैर किसी परवाह के। जैसे ज़िंदगी को अगर जीने का कोई अंतिम, प्रामाणिक तरीक़ा हो — तो शायद वही हो। जीते जी मोक्ष, अपने ही विचारों की सीमाओं से मुक्त होना — यही तो कला का अंतिम उद्देश्य होता है, और फ्रांसीसी सिनेमा इसे साध लेता है।
भारत में? अभी शायद हज़ार साल लगेंगे वहां तक पहुँचने में।
हमारी कहानियों में संवेदना तो है, लेकिन हिम्मत नहीं। हमारे पास कल्पनाएं हैं, लेकिन उन्हें बयां करने की आज़ादी नहीं। हम जिन विषयों पर आज भी कानाफूसी तक नहीं कर सकते, वहां फ्रांसीसी सिनेमा उन्हें पूरी दुनिया के सामने निर्भीकता से रखता है — बगैर किसी स्पष्टीकरण के।
यह कोई एक फिल्म की बात नहीं — Blue is the Warmest Colour हो, Amour, La Vie d'Adèle, Breathless, या Portrait of a Lady on Fire — हर एक फिल्म अपने आप में एक सवाल है, एक प्रयोग है, और एक प्रतिबिंब है उस आज़ाद सोच का जो शायद किसी पाठ्यक्रम में नहीं सिखाई जा सकती।
भारतीय सिनेमा अभी भी सतह पर तैर रहा है। गहराई में उतरने का साहस अभी कम ही लोगों में है। यहाँ हर सच्चाई को पहले सेंसर, फिर संस्कार, और अंत में डर की चाशनी में डुबोकर पेश किया जाता है।
और यही फर्क है — वहां सिनेमा आत्मा की खोज है, यहाँ अब भी मनोरंजन का साधन मात्र।
इरशाद दिल्लीवाला
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